Thursday, October 13, 2011

विज्ञापनों में शो-पिस बनती लड़कियां


बीते दिनों राष्ट्रीय महिला आयोग ने केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्रालय को पत्र लिखकर कुछ विज्ञापनों पर लगाम कसने की मांग की। ये ऐसे विज्ञापन हैं, जिनमें स्त्री की नकारात्मक छवि पेश की गई है। दरअसल पिछले कुछ समय से ऐसे विज्ञापनों की भरमार होती जा रही है जिनमें महिलाओं को एक उत्पाद की तरह दिखाया जाता है। कुछ इस तरह जैसे वह भोग की सामान हों। आज एक क्रीम से लेकर सिम कार्ड तक के विज्ञापनों में स्त्री का यही रूप देखने को मिलता है। सिमकार्ड के एक विज्ञापन में एक लड़का फोन पर एक- एक करके दो लड़कियों को अपनी टांग टूटने की झूठी कहानी बताता है और जब उसका दोस्त उससे रुकने के लिए कहता है तो वह जवाब में कहता है कि 'जब दो पैसे में दो-दो पट रही हैं तो क्या प्रॉब्लम है।'

एक अन्य विज्ञापन में खेल के मैदान में एक खिलाड़ी अपने साथी को अपने मोबाइल पर अपनी बहुत सारी गर्लफ्रेंड्स की पिक्चर्स एक-एक करके बड़ी शान से दिखाता है, मानो उसने कोई बहुत बड़ा शाबाशी वाला काम किया हो। उसका साथी उससे बड़े आश्चर्य से पूछता है कि यार तू इन सभी को एक साथ अजस्ट कैसे करता है, और इस सवाल पर उसका सीना शान से और चौड़ा हो जाता है। यानी कि लड़कियों का अस्तित्व सिर्फ दो पैसे में पटाने से लेकर अजस्ट करने तक ही रह गया है। एक तरफ तो कहा जा रहा है कि लड़कियां हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं। उनके सशक्त होने के दावे किए जाते हैं पर विज्ञापनों में कामयाब स्त्री कम क्यों दिखाई देती है?

दरअसल विज्ञापन बनाने वाले भी एक औसत पुरुष की आंख से ही समाज को देखते हैं। और आज का पुरुष समाज अब भी मानसिक स्तर पर स्त्री को बराबरी का दर्जा नहीं दे पाया है। वह औरत को मनोरंजन की ही वस्तु समझता है। विज्ञापनों में यही मानसिकता झलकती है। एक विज्ञापन में एक लड़की का महज खूबसूरत होना ही उसकी कामयाबी का कारण बन गया। एक और विज्ञापन में लड़की ने फेयरनेस क्रीम लगाई तो वह स्टार बन गई। वहीं जब लड़के ने वही क्रीम लगा ली तो उसका दोस्त बोलता है कि 'मर्द होकर लड़कियों वाली फेयरनेस क्रीम? यानी लड़कियां एक उत्पाद के साथ- साथ 'मर्दों' के आगे इतनी छोटी भी हैं कि गलती से भी उनकी क्रीम लगाना इन 'मर्दों' के लिए मुंह छुपाने का कारण बन जाता है। एक रिफायंड ऑइल के लगभग सभी विज्ञापनों में महिलाओं को एक हाउस वाइफ के ही रूप में ही दिखाया जाता है, जो अपने पति की बढ़ती उम्र की फिक्र करती है, और उसके लिए वह ऑइल लाती है ताकि उसकी सेहत अच्छी रहे। इस ऑइल के किसी भी विज्ञापन में यह नहीं दिखाया जाता कि पति अपनी पत्नी के लिए वह ऑयल लाया हो, मानो घर में सारा दिन काम करते रहने वाली महिला को खराब सेहत का तो कोई खतरा ही नहीं है।

मगर यहां से यह विज्ञापन पैतृक समाज की इस सोच का एक और पहलू सामने लाते हैं, वह यह कि एक ओर तो अधिकतर युवा गर्लफ्रेंड के नाम पर खूबसूरत वेस्टर्न कपड़े पहनने वाला उत्पाद अपने साथ चाहते हैं, वहीं दूसरी ओर पत्नी के नाम पर एक हाउसवाइफ को ही प्राथमिकता देते हैं जो अपना करियर छोड़ कर उनके साथ अपनी जिंदगी गुजार दे। दरअसल दिक्कत समाज के एक वर्ग की सोच की है जो महिलाओं को एक दायरे से बाहर नहीं देखना चाहता है और इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि इस वर्ग में कुछ महिलाएं भी शामिल हैं। राष्ट्रीय महिला आयोग भले ही पहल करके ऐसे विज्ञापनों पर रोक लगवा दे लेकिन इससे समाज की उस सोच पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा जो इसके लिए जिम्मेदार है। इस समस्या से निपटने के लिए सबसे जरूरी इस सोच को खत्म करना है जिसके लिए बहुत गंभीर प्रयासों की जरूरत है। और यह प्रयास महिला आयोग जैसी कोई एक संस्था नहीं कर सकती है बल्कि इसे सारे समाज को मिलकर करना होगा।