Sunday, May 22, 2011

यह संविधान इतना दोगला क्यों हैं?

: जुल्म जारी रखो.. जनता ने खामोश रहना सीख लिया है : राहुल के भट्टा परसौल पहुंचने से एक दिन पहले प्रसारित वीडियो (टीवी रिपोर्टरों के मुताबिक यह गांव से काफी दूर से लिए गए थे) में गांव जलता हुआ दिख रहा था। आग की लपटें दिख रहीं थी। जली हुई गाड़ियां दिख रहीं थी। जली हुई बाइकें दिख रही थी। जलते हुए खेत दिख रहे थे। जलते हुए भूसे और उपलों के बटोरे दिख रहे थे। मतलब..इसमें कोई शक नहीं कि आग दिख रही थी। आग लगी थी..चारो और आग दिख रही थी।

राहुल गांधी बाइक से भट्टा परसौल पहुंचे और पीछे-पीछे मीडिया भी पहुंचा। पहले यहां धारा 144 लगी हुई थी और मीडिया वालों को गांव में जाने से पुलिस ने रोक दिया था। (जबकि धारा 144 के तहक आने-जाने पर कोई प्रतिबंध नहीं होता, यह सिर्फ लोगों को इकट्ठा होने से रोकती है।) मीडिया पहुंचा तो चीजें सामने आनी शुरु हुई। जी न्यूज, एनडीटीवी, स्टार न्यूज और बाकी सभी चैनलों के रिपोर्टरों ने गांव वालों को दिखाया, (मैंने यह पटना में बैठकर टीवी पर देखा)।

बुरी तरह पिटे हुए बुजुर्ग टीवी पर दिखे। चेहरे पर घाव के निशान लिए महिलाएं टीवी पर दिखी। सिसकते हुए बच्चे टीवी पर दिखे। अपनी आबरू लुटने की दुहाई देती हुई महिलाएं भी टीवी पर दिखी। पुलिस द्वारा लोगों (खासकर पुरुषों और युवाओं) को पीटे जाने की बर्बर दासतान सुनाते हुए बुजुर्ग टीवी पर दिखे। रोतो हुए बुजुर्ग दिखे, बिलखते हुए बच्चे दिखे, सिसिकती हुए माएं दिखी, तड़पती हुए बहनें दिखी।

राहुल ने यह देखा। देश ने यह देखा। मायावती ने भी जरूर देखा होगा और अफसरों ने भी देखा होगा। हां..सबने देखा। राहुल राजनीति से हैं इसलिए लोगों ने राहुल के वहां पहुंचने पर इसे देखने का नजरिया बदल लिया। अब जिसने भी देखा इसे राजनीतिक चश्मे से देखा। बीजेपी ने देखा और राहुल की आलोचना की। मायावती ने देखा राहुल की आलोचना की। कांग्रेसियों ने देखा राहुल के गुणगान गाए।

अब गांव वालों के जख्मों पर, बुझी हुई आंखों पर, लुटे हुए घरों पर, बिलखती हुए माओं पर, तड़पती हुई पत्नियों पर और भट्टा की राख में दम तोड़ रही यहां के बच्चों के सपनों को राजनीति ने ढक दिया। पूरा प्रकरण राहुल की राजनीतिक जीत या मायावती की हार में बदल गया। अब मुद्दा राजनीतिक हो गया। राहुल गिरफ्तार हुए, रिहा हुए और दिल्ली पहुंचे। गांव के पीड़ितों को लेकर प्रधानमंत्री के पास पहुंचे। प्रधानमंत्री ने भी ग्रामीणों की दास्तान सुनीं। प्रधानमंत्री से मुलाकात के बाद राहुल ने मीडिया के सामने कहा कि भट्टा परसौल में ज्यादती हुई, मानवाधिकारों का हनन हुआ, हत्याएं हुईं, बलात्कार हुए।

देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के 'युवराज' के मुंह से यह शब्द निकले हर अखबार की सुर्खी बने। अखबारों ने कहा भट्टा में ज्यादती हुई। टीवी ने कहा भट्टा में ज्यादती हुई। राहुल ने कहा तो सबने कहा भट्टा में ज्यादती हुई। सबने देखा भट्टा में ज्यादती हुई। सबने कह भी दिया भट्टा परसौल में ज्यादती हुई। माया ने सुन लिया। माया के अफसरों ने सुन लिया।

अगले ही दिन माया के अफसरों ने प्रेस कांफ्रेंस की। डरते हुए प्रेस कांफ्रेंस की। राहुल के हर आरोप को निराधार बताया। बयान को निराधार बताया। बुजुर्गों को पीटे जाने के निराधार बताया, महिलाओं से ज्यादती को निराधार बताया। यानि राहुल ने जो कुछ कहा उसे निराधार बताया, प्रधानमंत्री ने जो सुना उसे निराधार बताया। हमने जो टीवी पर देखा उसे निराधार बताया। कहा कि राख के नमूने यह जांचने के लिए लिए गए कि कहीं उसमें कोई विस्फोटक तो नहीं है।

इससे पहले माया ने अपने पुलिस अफसरों का गुणगान किया। भट्टा परसौल की घटना पर हो रही राजनीति की आलोचना की। अपनी सरकार की तारीफ में कसीदे पढ़े। हमने सुने। आपने सुने। हम सबने सुने। राहुल बोले हमने सुना। माया बोली हमने सुना। माया के अफसर बोले हमने सुना। सब बोले हमने सुना। सब बोल चुके और अब हम खामोश। हमारी खामोशी ने बता दिया कि जिसने जो कहा सही है। राहुल ने जो कहा वो भी सही। टीवी पर जो दिखा (इसमें कोई शक नहीं हो सकता क्योंकि ये हमने सुना नहीं हमने देखा) वो भी सही। मायावती ने जो कहा वो भी सही। अफसरों ने जो कहा वो भी सही। हमने सबको सही माना और हम खामोश।

एक और बात, मुझे याद है कि एक बार मुझे समझाते हुए एक बुजुर्ग ने कहा था कि यदि तुम कहीं जुल्म होते हुए देखो तो अगर तुम्हारे बस में हो तो उसे रोक दो। कोई जालिम यदि किसी मजलूम पर जुल्म कर रहा है तो उसे रोक दो। अगर रोकने लायक ताकत तुममें न हो तो आवाज बुलंद कर यह कहो कि जुल्म हो रहा है, हो सकता है कि कोई ऐसा बंदा सुन ले जो उस जालिम को रोक सके। यदि तुम्हें इस बात का डर हो कि जालिम तुम्हारी आवाज सुन कर तुम पर भी जुल्म करेगा तो बुलंद आवाज में न सही लेकिन अपने दिल में तो कहो कि जुल्म हो रहा है। और जब तुम अपने दिल में कहोगे कि जुल्म हो रहा है तो तुम्हें अहसास होगा कि तुम कितने बेबस हो, एक जालिम को नहीं रोक सकते, जुल्म को नहीं रोक सकते, जुल्म के खिलाफ आवाज नहीं उठा सकते। यह बेबसी का अहसास तुम्हें जुल्म के खिलाफ आवाज बुलंद करने के लिए ताकतवर बनने की प्रेरणा देगा।

अब कुछ सवाल-

  1. क्या किसी ने यह पूछा कि जो दो गांव वाले मारे गए उनका कोई आपराधिक रिकार्ड था क्या?

  2. क्या ऐसा कोई कानून होता है जो पुलिस को घरों में आग लगाने की इजाजत देता है। या घर में ही क्यों किसी भी चीज में आग लगाने की इजाजत देता है?

  3. क्या पुलिस ने जो भट्टा परसौल में किया वो दहशत फैलाने की नियत से नहीं था? क्या पुलिस को अधिकार है कि वो बदले की भावना से कार्रवाई करे ?

  4. एक बचकाना सवाल- क्या विस्फोटकों में आग लगाई जाती है? पुलिस का कहना है कि भट्टा परसौल में ग्रामीणों ने घरों में विस्फोटक रख रखे थे? ये कहां से आए और ग्रामीणों को इनकी क्या जरूरत थी?

एक और सवाल-

हम इतने बेबस क्यों हैं। हम जुल्म देखते हैं खामोश रहते हैं। जुल्म की दास्तान सुनते हैं खामोश रहते हैं। दहशतगर्दी देखते हैं खामोश रहते हैं। दूसरे के घरों को जलता हुए देखकर हमारे दिल से धुआं क्यों नहीं उठता। हम हर बात में राजनीति क्यों देखते हैं। हम राहुल के बयानों में राजनीति दिख जाती है लेकिन जो भुस को बटोरे पुलिस ने जलाए उन्हें बनाने में लगी किसानों की मेहनत क्यों नहीं दिखती? जो गाय-भैसों के गोबर के उपले पुलिस ने जलाए उनमें लगी गांव की मां-बेटियों की मेहनत क्यों नहीं दिखती? चलो मान लिया कि पुलिस ने ग्रामीणों की जान नहीं ली...लेकिन क्या जो आगजनी हुई वो संवैधानिक है? जो नुकसान हुआ वो संवैधानिक है?

और अंतिम बात-

जो संविधान पुलिस और प्रशासन को असीमित ताकत देता है। जो सरकारों और नौकरशाहों को खास सुविधाएं देता है वो आम जनता को सम्मान से जीने का अधीकार भी तो देता है। सरकार और अफसरों को तो ताकत, दौलत, शौहरत और बहुत कुछ मिल जाता है...लेकिन बेचारी जनता को सम्मान क्यों नहीं मिल पाता। यह संविधान इतना दोगला क्यों हैं?

क्या इतने पुलिस बल का मुकाबला देश का कोई भी गांव कर सकता है?

ये बुजुर्ग जख्म ही तो दिखा रहा है। या आपको कुछ और दिख रहा है?

ये आग सबने देखी। क्या पुलिस के पास गांव में आग लगाने का कोई विशेषाधिकार है?

ये महिलाएं राहुल से क्या कह रही हैं। क्या ये जो कह रही हैं उसपर यकीन न करने की कोई वजह है?

राहुल की राजनीति को भी देखों लेकिन जनता पर अत्याचार को नजरअंदाज मत करो।


नीतीश कुमार
पटना
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Wednesday, May 11, 2011

बाल श्रम, मज़बूरी या मजदूरी

आज 21 वीं शताब्दी में बाल श्रम जैसा शब्द कर्ण अप्रिय लगता है. लेकिन हमारे समाज का ये एक घिनौना सच है. सरकार की विभिन्न योजनाओं के बावजूद इस से निजात पाना एक चुनौती बन गया है.

पेश है नीतीश कुमार की विशेष रिपोर्ट.

Tuesday, May 10, 2011

प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 6 रुपये 42 पैसे का खर्च



बिहार सरकार प्रत्येक बिहार वासी पर प्रत्येक दिन 6 रुपये 42 पैसे खर्च करती है। राज्य सरकार इसी पैसे से शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली और खाद्यान्न आदि का प्रबंध करती है। यह आंकड़ा पूरी तरह सरकारी है। वर्ष 2011 की जनगणना के बाद यह तथ्य स्पष्ट हुआ है कि बिहार में प्रति व्यक्ति औसत आय 11 हजार रुपये की सीमा को पार कर चुकी है। इस लिहाज से एक बिहारी की रोजाना आय केवल 30 रुपये है। अर्थार्त प्रत्येक बिहारी नागरिक की अपनी आय केवल 23 रुपये 58 पैसे हैं।

अब यदि सरकारी खर्च की बात करें तो यह महज संयोग नहीं है कि सरकार सबसे अधिक खर्च शिक्षा उपलब्ध कराने के लिये करती है। मसलन बिहार सरकार ने मानव संसाधन विकास विभाग के मद में वर्ष 2011-12 के दौरान कुल 24000 करोड़ रुपये के अपने योजना आकार में से 3014 करोड़ रु[पये खर्च करने की योजना बनाई है। वर्तमान जनसंख्या से भाग देने पर जो राशि प्राप्त होती है, उसके अनुसार बिहार सरकार प्रति माह 24 रुपये 20 पैसे शिक्षा के मद में खर्च करती है। इसी प्रकार 4 रुपये 35 पैसे की सहायता राज्य सरकार सूबे के एक नागरिक के स्वास्थ्य का ख्याल रखती है। जबकि पीने हेतु पेयजल और खेतों में सिंचाई हेतु जल उपलब्ध कराने के लिये राज्य सरकार प्रति मात 24 रुपये 17 पैसे खर्च करती है।

खेती के सहारे बिहार को विकसित बनाने के लिय राज्य सरकार की दृढता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है राज्य सरकार प्रत्येक व्यक्ति के हिसाब से प्रतिमाह 9 रुपये 75 पैसे खर्च करती है। अन्य विभागों की बात करें तो सूबे के अल्पसंख्यकों के लिये सरकार का हृदय अत्यंत ही विशाल है। ऐसा इसलिये कि सूबे के प्रत्येक अल्पसंख्यक नागरिक पर राज्य सरकार प्रतिमाह 4 रुपये 83 पैसे खर्च करती है। बताते चलें कि सूबे में अल्पसंख्यकों की आबादी कुल आबादी का 15 प्रतिशत (पूर्व में यह 16 फ़ीसदी हुआ करता था) राज्य सरकार ने अल्पसंख्यक कल्याण विभाग के लिये कुल 90 करोड़ रुपये खर्च करने का लक्ष्य निर्धारित किया है।

सामाजिक दृष्टिकोण से राज्य सरकार सबसे अधिक राज्य के अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों पर मेहरबान है। इसकी वजह यह है कि इन समुदायों के प्रत्येक व्यक्ति के लिये राज्य सरकार ने प्रत्येक माह 24 रुपये 17 पैसे खर्च करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। हालांकि राज्य की आबादी में 60 फ़ीसदी हिस्सेदारी रखने वाले पिछड़ों और अति पिछड़ों के लिये सरकार ने प्रति माह केवल 92 ही खर्च करने का लक्ष्य निर्धारित किया है।

बहरहाल, यह उल्लेखनीय है कि सरकार द्वारा स्थापना एवं अन्य पूर्व निर्धारित मदों ( जिनका संबंध आम जनता से नहीं होता है) के तहत कुल राशि का 36-37 फ़ीसदी हिस्सा खर्च कर देती है। इस प्रकार प्रति व्यक्ति होने वाले सरकारी खर्च का अनुमान इसी मात्र से लगाया जा सकता है।
एक बिहारी पर माहवार सरकारी खर्च

विभाग का नाम
खर्च

मानव संसाधन विकास विभाग
24.20 रुपये

स्वास्थ्य विभाग
04.35 रुपये

उद्योग विभाग
00.33 रुपये

जल संसाधन विभाग
24.17 रुपये

कृषि विभाग
09.75 रुपये

अनुसूचित जाति/जनजाति कल्याण
24.17 रुपये

पिछड़ा/अति पिछड़ा वर्ग
00.92 रुपये

अल्पसंख्यक कल्याण विभाग
04.83 रुपये



श्रोत – बिहार सरकार द्वारा जारी बजट और वर्ष 2011 की जनगणना रिपोर्ट के आधार पर






Nitish Kumar



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